मुबारक बीमारी


रात के नौ बज गये थे,
एक युवती अंगीठी के सामने बैठी हुई आग फूंकती थी और उसके गाल आग के
कुन्दनी रंग में दहक रहे थ। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें दरवाजे की तरफ़ लगी हुई
थीं। कभी चौंककर आंगन की तरफ़ ताकती, कभी कमरे की तरफ़। फिर आनेवालों की
इस देरी से त्योरियों पर बल पड़ जाते और आंखों में हलका-सा गुस्सा नजर
आता। कमल पानी में झकोले खाने लगता।
इसी बीच आनेवालों की आहट मिली। कहर बाहर पड़ा खर्राटे ले रहा
था। बूढ़े लाला हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहा-कम्बख्त, अभी
शाम हुई है और अभी से लम्बी तान दी!
नौजवान लाला हरिदास घर मे दाखिल हुए—चेहरा बुझा हुआ, चिन्तित।
देवकी ने आकर उनका हाथ पकड़  लिया और गुस्से व प्यार की मिली ही हुई आवाज
में बोली—आज इतनी देर क्यों हुई?
दोनों नये खिले हुए फूल थे—एक पर ओस की ताज़गी थी, दूसरा धूप से मुरझाया हुआ।
हरिदास—हां, आज देर हो गयी, तुम यहां क्यों बैठी रहीं?
देवकी—क्या करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठन्डा हो जाता।
हरिदास—तुम ज़रा-से-काम के लिए इतनी आग के सामने न बैठा करो। बाज आया गरम खाने से।
देवकी—अच्छा, कपड़े तो उतारो, आज इतनी देर क्यों की?
हरिदास—क्या बताऊँ, पिताजी ने ऐसा नाक में दम कर दिया है कि कुछ
कहते नहीं बनता। इस रोज-रोज की झंझट से तो यही अच्छा कि मैं कहीं और नौकरी
कर लूं।
लाला हरनामदास एक आटे की चक्की के मालिक थे। उनकी जवानी के
दिनों में आस-पास दूसरी चक्की न थी। उन्होंने खूब धन कमाया। मगर अब वह
हालत न थी। चक्कियां कीड़े-मकोडों की तरह पैदा हो गयी थीं, नयी मशीनों और
ईजादों के साथ। उसके काम करनेवाले भी जोशीले नौजवान थे, मुस्तैदी से काम
करते थे। इसलिए हरनामदास का कारखाना रोज गिरता जाता था। बूढ़े आदमियों को
नयी चीजों से चिढ़ हो जाती है। वह लाला हरनामदास को भी थी। वह अपनी पुरानी
मशीन ही को चलाते थे, किसी किस्म की तरक्की या सुधार को पाप समझते थे,
मगर अपनी इस मन्दी पर कुढा  करते थे। हरिदास ने उनकी मर्जी के खिलाफ़
कालेजियेट शिक्षा प्राप्त की थी और उसका इरादा था कि अपने पिता के कारखाने
को नये उसूलों पर चलाकर आगे बढायें। लेकिन जब वह उनसे किसी परिवर्तन या
सुधार का जिक्र करता तो लाला साहब जामे से बाहर हो जाते और बड़े गर्व से
कहते—कालेज में पढ़ने से  तजुर्बा नहीं आता। तुम अभी बच्चे हो, इस काम में
मेरे बाल सफेद हो गये हैं, तुम मुझे सलाह मत दो। जिस तरह मैं कहता हूँ,
काम किये जाओ।
कई बार ऐसे मौके आ चुके थे कि बहुत ही छोटे मसलों में अपने पिता
की मर्जी के खिलाफ काम करने के जुर्म में हरिदास को सख्त फटकारें पड़ी
थीं। इसी वजह से अब वह इस काम में कुछ उदासीन हो गया थ और किसी दूसरे
कारखाने में किस्मत आजमाना चाहता था जहां उसे अपने  विचारों को अमली सूरत
देने की ज्यादा सहूलतें हासिल हों।
देवकी ने सहानुभूतिपूर्वक कहा—तुम इस फिक्र में क्यों जान खपाते
हो, जैसे वह कहें, वैसे ही करो, भला दूसरी जगह नौकरी कर लोगे तो वह क्या
कहेगे? और चाहे वे गुस्से के मारे कुछ न बोलें, लेकिन दुनिया तो तुम्हीं
को बुरा कहेगी।
देवकी नयी शिक्षा के आभूषण से वंचित थी। उसने स्वार्थ का पाठ न
पढा था, मगर उसका पति अपने ‘अलमामेटर’ का एक प्रतिष्ठित सदस्य था। उसे
अपनी योग्यता पर पूरा भरोसा था। उस पर नाम कमाने का जोश। इसलिए वह बूढ़े
पिता के पुराने  ढर्रो को देखकर  धीरज खो बैठता था। अगर अपनी योग्यताओं के
लाभप्रद उपयोग की कोशिश के लिए  दुनिया उसे बुरा  कहे, तो उसकी परवाह न
थी। झुंझलाकर बोला—कुछ मैं अमरित की घरिया पीकर तो नहीं आया हूँ कि सारी
उम्र उनके मरने का इंतजार करूँ। मूर्खों की अनुचित टीका-टिप्पणियों के डर
से क्या अपनी उम्र बरबार कर दूं? मैं अपने कुछ हमउम्रों को जानता हूँ जो
हरगिज मेरी-सी योग्यता नहीं रखते। लेकिन वह मोटर पर हवा खाने निकलते हैं,
बंगलों में रहते हैं और शान से जिन्दगी बसर करते हैं तो मैं क्यों हाथ पर
हाथ रखे जिन्दगी को अमर समझे बैठा रहूँ! सन्तोष और निस्पृहता का युग बीत
गया। यह संघर्ष का युग है। यह मैं जानता हूँ कि पिता का आदर करना मेरा
धर्म है। मगर सिद्धांतों के मामले में मैं उनसे क्या, किसी से भी नहीं दब
सकता।
इसी बीच कहार ने आकर कहा—लाला जी थाली मांगते हैं।
लाल हरनामदास हिन्दू रस्म-रिवाज के बड़े पाबन्द थे। मगर बुढापे
के कारण चौक के चक्कर से मुक्ति पा चुके थे। पहले कुछ दिनों तक जाड़ों में
रात को पूरियां न हजम होती थीं इसलिए चपातियां ही अपनी बैठक में मंगा
लिया करते थे। मजबूरी ने वह कराया था जो  हुज्जत और दलील के काबू से बाहर
था।
हरिदास के लिए भी देवकी ने खाना निकाला। पहले तो वह हजरत बहुत
दुखी नजर आते थे, लेकिन बघार की खुशबू ने खाने के लिए चाव पैदा कर दिया
था। अक्सर हम अपनी आंख और नाक से हाजमे का काम लिया करते हैं।

2

लाला
हरनामदास रात को भले-चंगे सोये लेकिन अपने बेटे की गुस्ताख़ियां और कुछ
अपने कारबार की सुस्ती और मन्दी उनकी आत्मा के लिए भयानक कष्ट का कारण हो
गयीं और चाहे इसी उद्विग्नता का असर हो, चाहे बुढापे का, सुबह होने से
पहले उन पर लकवे का हमला हो गय। जबान बन्द हो गयी और चेहरा ऐंठ गया।
हरिदास ड़ाक्टर के पास दौड़ा। ड़ाक्टर आये, मरीज़ को देखा और बोले—डरने की
कोई बात नहीं। सेहत होगी मगर तीन महीने से कम न लगेंगे। चिन्ताओं के कारण
यह हमला हुआ है इसलिए कोशिश करनी चाहिये कि वह आराम से सोयें, परेशान न
हों और जबान खुल जाने पर भी जहां तक मुमकिन हो, बोलने से बचें।
बेचारी देवकी बैठी रो रही थी। हरिदास ने आकर उसको सान्त्वना दी,
और फिर ड़ाक्टर के यहां से दवा लाकर दी। थोड़ी देर में मरीज को होश आया,
इधर-उधर कुछ खोजती हुई-सी निगाहों से देखा कि जैसे कुछ कहना चाहते हैं और
फिर इशारे से लिखन के लिए कागज मांगा।  हरिदास ने कागज और पेंसिल रख दी, तो
बूढ़े लाला साहब ने हाथों को खूब सम्हालकर लिख—इन्तजाम दीनानाथ के  हाथ
मे रहे।
ये शब्द हरिदास के हृदय में तीर की तरह लगे। अफ़सोस! अब भी मुझ
पर भरोसा नहीं! यानी कि दीनानाथ मेरा मालिक होगा और मैं उसका गुलाम बनकर
रहूँगा! यह नहीं होने का। काग़ज़ लिए देवकी के पास आये और बोले—लालाजी ने
दीनानाथ को मैनेजर बनाया है, उन्हें मुझ पर इतना एतबार भी नहीं हैं, लेकिन
मैं इस मौके को हाथ से न दूंगा। उनकी बीमारी का अफ़सोस तो जरूर है मगर
शायद परमात्मा ने मुझे अपनी योग्यता  दिखलाने का यह अवसर दिया है। और
इससे मैं जरूर फायदा उठाऊँगा। कारखाने के कर्मचारियों ने इस दुर्घटना की
खबर सुनी तो बहुत घबराये। उनमें कई निकम्मे, बेमसरफ़ आदमी भरे हुए थे, जो
सिर्फ खुशामद और चिकनी-चुपड़ी बातों की रोटी खाते थे। मिस्त्री ने कई
दूसरे कारखानों में मरम्मत का काम उठा लिया था रोज किसी-न-किसी बहाने से
खिसक जाता था। फायरमैन और मशीनमैन दिन को झूठ-मूठ चक्की की सफाई में काटते
थे और रात के काम करके ओवर टाइम की मजदूरी लिया करते थे। दीनानाथ जरूर
होशियार और तजुर्बेकार आदमी था, मगर उसे भी काम करने के मुकाबिले में ‘जी
हां’ रटते रहने में ज्यादा मजा आता था। लाला हरनामदास मजदूरी देन में बहुत
हीले-हवाले किया करते थे और अक्सर काट-कपट के भी आदी थे। इसी को वह
कारबार का अच्छा उसूल समझाते थे।
हरिदास ने कारखाने में पहुँचते ही साफ शब्दों कह दिय कि तुम
लोगों को मेरे वक्त में जी लगाकर काम करना होगा। मैं इसी महीन में काम
देखकर सब की तरक्की करूंगा। मगर अब टाल-मटोल का गुजर नहीं, जिन्हें मंजूर न
हो वह अपना बोरिया-बिस्तर सम्हालें और फिर दीनानाथ को बुलाकर कहा-भाई
साहब, मुझे खूब मालूम है कि आप होशियार और सूझ-बूझ रखनेवाले आदमी हैं।
आपने अब तक यह यहां का जो रंग देखा, वही अख्तियार किया है। लेकिन अब मुझे
आपके तजुर्बे और मेहनत की जरूरत है। पुराने हिसाबों की जांच-पड़ताल किजिए।
बाहर से काम मेरा जिम्मा है लेकिन यहां का इन्तजाम आपके सुपुर्द है।  जो
कुछ नफा होगा, उसमें आपका भी हिस्सा होगा। मैं चाहता हूँ कि दादा की
अनुपस्थिति में कुछ अच्छा काम करके दिखाऊँ।
इस मुस्तैदी और चुस्ती का असर बहुत जल्द कारखाने में नजर आने
लगा। हरिदास ने खूब इश्तहार बंटवाये। उसका असर यह हुआ कि काम आने लगा।
दीनानाथ की मुस्तैदी की बदौलत ग्राहकों को नियत समय पर और किफायत से आटा
मिलने लगा। पहला महीना भी खत्म न हुआ था कि हरिदास ने नयी मशीन मंगवायी।
थोड़े अनुभवी आदमी रख लिये, फिर क्या था, सारे शहर में इस कारखाने  की धूम
मच गयी। हरिदास ग्राहकों से इतनी अच्छी तरह से पेश आता कि जो एक बार उससे
मुआमला करता वह हमेशा के लिए उसका खरीदार बन जाता। कर्मचारियों के साथ
उसका सिद्धांत था—काम सख्त और मजदूरी ठीक। उसके ऊंचे व्यक्तित्व का भी
स्पस्ट प्रभाव दिखाई पड़ा। करीब-करीब सभी कारखानों का रंग फीका पड़ गया।
उसने बहुत ही कम नफे पर ठेले ले लिये। मशीन को दम मारने की मोहलत न थी,
रात और दिन काम होता था। तीसरा महीना खत्म होते-होते उस कारखाने की शकल ही
बदल गयी। हाते में घुसते ही ठेले और गाडियों की भीड़ नज़र आती थी।
कारखाने में बड़ी चहल-पहल थी-हर आदमी अपने अपने काम में लगा हुआ। इसके साथ
की प्रबन्ध कौशल का यह वरदान था कि भद्दी हड़बड़ी और जल्दबाजी का कहीं
निशान न था।

3

लाला
हरनामदास धीरे-धीरे ठीक होने लगे। एक महीने के बाद वह रूककर कुछ बोलने
लगे। ड़ाक्टर की सख्त ताकीद थी कि उन्हे पूरी शान्ति की स्थिति में रखा
जाय मगर जब उनकी जबान खुली उन्हें एक दम को भी चैन न था। देवकी से कहा
करते—सारा कारबार मिट्टी में मिल जाता है। यह  लड़का मालूम नहीं क्या कर
रहा है, सारा काम अपने हाथ में ले रखा है। मैंने ताकीद कर दी थी कि
दीनानाथ को मैनेजर बनाना लेकिन उसने जरा भी परवाह न की। मेरी सारी उम्र की
कमाई बरबाद हुई जाती है।
देवकी उनको सान्त्वना देती कि आप इन बातों की आशंका न करें।
कारबार बहुत खूबी से चल रहा है और खूब नफ़ा हो रहा है। पर वह भी इस मामले
में तूल देते हुए ड़रती थी कि कहीं लक़वे का फिर हमला न हो जाय। हूं-हां
कहकर टालना चाहती थी। हरिदास ज्यों ही घर में आता, लाला जी उस पर सवालों
की बौछार कर देते और जब वह टालकर कोई दूसरा जिक्र छेड़ देता तो  बिगड़
जाते और कहते—जालिम, तू जीते जी मेरे गले पर छुरी फेर रहा है। मेरी पूंजी
उड़ा रहा है। तुझे क्या मालूम कि मैंने एक-एक कौड़ी किस मशक्कत से जमा की
है। तूने दिल में ठान ली  है कि इस बुढ़ापे में मुझे गली-गली ठोकर
खिलाये, मुझे कौड़ी-कौड़ी का मुहतात बनाये।
हरिदास फटकार का कोई जवाब न देता क्योंकि बात से बात बढ़ती है।
उसकी चुप्पी से लाला साहब को यकीन हो जाता कि कारखाना तबाह हो गया।
एक रोज देवकी ने हरिदास से कहा—अभी कितने दिन और इन बातों का लालाजी से छिपाओगे?
हरिदास ने जवाब दिया—मैं तो चाहता हूँ कि नयी मशीन का रुपया
अदा हो जाय तो उन्हें ले जाकर सब कुछ दिखा दूँ। तब तक ड़ाक्टर साहब की
हिदायत के अनुसार तीन महीने पूरे भी हो जायेंगे।
देवकी—लेकिन इस छिपाने से क्या फायदा, जब वे आठों पहर इसी की रट
लगाये रहते हैं। इससे तो चिन्ता और बढ़ती ही है, कम नहीं होती। अससे तो
यही अच्छा है, कि उनसे सब कुछ कह दिय जाए।
हरिदास—मेरे कहने का तो उन्हें यकीन आ चुका। हां, दीनानाथ कहें तो शायद यकीन हो
देवकी—अच्छा तो कल दीनानाथ को यहां भेज दो। लालाजी उसे देखते ही
खुद बुला लेंगे, तुम्हें इस रोज-रोज की डांट-फ़टकर से तो छुट्टी मिल
जाएगी।
हरिदास—अब मुझे इन फटकारों का जरा भी दुख नहीं होता। मेरी मेहनत
और योग्यता का नतीजा आंखों के सामने मौजूद है। जब मैंने कारखाना आने हाथ
में लिया था, आमदनी और खर्च का मीज़ान मुश्किल से बैठता था। आज पांच से का
नफा है। तीसरा महीना खत्म होनेवाला है और मैं मशीन की आधी कीमत  अदा कर
चुका। शायद अगले महीने दो महीने में पूरी कीमत अदा हो जायेगी। उस वक्त से
कारखाने का खर्च तिगुने से ज्यादा है  लेकिन आमदनी पंचगुनी हो गयी है।
हजरत देखेंगे तो आंखें खुल जाएंगी। कहां हाते में उल्लू बोलते थे। एक मेज़
पर बैठे आप ऊंघा करते थे, एक पर दीनानाथ कान कुरेदा करता था। मिस्त्री और
फायरमैन ताश खेलते थ। बस, दो-चार घण्टे चक्की चल जाती थी। अब दम मारने की
फुरसत नहीं है। सारी ज़िन्दगी में जो कुछ  न कर  सके वह मैंने तीन महीने
मे करके दिखा दिया। इसी तजुर्बे और कार्रवाई पर आपको इतना घमण्ड था। जितना
काम वह एक महीने में करते थे उतना मैं रोज कर ड़ालता हूँ।
देवकी ने भर्त्सनापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—अपने मुंह मियां
मिट्ठू बनना कोई तुमसे सीख ले! जिस तरह मां अपने बेटे को हमेशा दुबला ही
समझती है, उसी तरह बाप बेटे को हमेशा नादान समझा करता है। यह उनकी ममता
है, बुरा मानने  की बात नहीं है।
हरिदास ने लज्जित होकर सर झुका लिया।
दूसरे रोज दीनानाथ उनको देखने के बहाने से लाला हरनामदास की
सेवा में उपस्थित हुआ। लालाजी उसे देखते ही तकिये के सहारे उठ बैठे और
पागलों की तरह बेचैन होकर पूछा—क्यों, कारबार सब तबाह  हो गया कि अभी कुछ
कसर बाकी है! तुम लोगों ने मुझे मुर्दा समझ लिया है। कभी बात तक न पूछी।
कम से कम मुझे ऐसी उम्मीद न थी। बहू ने मेरी तीमारदारी ने की होती तो मर
ही गया होती
दीनानाथ—आपका कुशल-मंगल रोज बाबू साहब से पूछ लिया करता था।
आपने  मेरे साथ जो नेकियां की हैं, उन्हें मैं भूल नहीं सकता। मेरा एक-एक
रोआं आपका एहसानमन्द है। मगर इस बीच काम ही कुछ एकस था कि हाज़िर होने की
मोहलत न मिली।
हरनामदास—खैर, कारखाने का क्या हाल है? दीवाला होने में क्या कसर बाकी है?
दीनानाथ ने ताज्जुब के साथ कहा—यह आपसे किसने कह दिया कि दीवाला
होनेवाला है? इस अरसे में कारोबार में जो तरक्की हुई है, वह आप खुद अपनी
आंखों से देख लेंगे।
हरनामदास व्यंग्यपूर्वक बोले—शायद तुम्हारे बाबू साहब ने
तुम्हारी मनचाही तरक्की कर दी! अच्छा अब स्वामिभक्ति छोड़ो और साफ बतलाआ।
मैंने ताकीद कर दी थी कि कारखाने का इन्तज़ाम तुम्हारे  हाथ में रहेगा।
मगर शायद  हरिदास ने सब कुछ अपने हाथ में रखा।
दीनानाथ—जी हां, मगर मुझे इसका जरा भी दुख नहीं। वही रइस काम के
लिए ठीक भी थे। जो कुछ उन्होंने कर दिखाया, वह मुझसे हरगिज न हो सकता।
हरनामदास—मुझे यह सुन-सुनकर हैरत होती है। बतलाओ, क्या तरक्की हुई?
दीनानाथ—तफ़सील तो बहुत ज्यादा होगी, मगर थोड़े मे यह समझ लीजिए
कि पहले हम लोग जितना काम एक महीने में करते थे उतना अब रोज होता  है। नयी
मशीन आयी थी, उसकी आधी, कीमत अदा हो चुकी है। वह अक्सर रात को भी चलती
है। ठाकुर कम्पनी का पांच हजार मन आटे का ठेका लिया था, वह पूरा होनेवाला
है। जगतराम बनवारीलाल से कमसरियट का ठेका लिया है। उन्होंने हमको पांच सौ
बोरे महावार का बयाना दिया है। इसी तरह और फुटकर काम कई गुना बढ़ गया है।
आमदनी के साथ खर्च भी बढ़े हैं। कई आदमी नए रखे गये हैं, मुलाज़िमों को
मजदूरी के साथ कमीशन भ्री मिलता है मगर खालिस नफा पहले के मुकाबले में
चौगुने के करीब है।
हरनामदास ने बड़े ध्यान से यह बात सुनी। वह ग़ौर से दीनानाथ के
चेहरे की तरफ देख रहे थे। शायद उसके दिन में पैठकर सच्चाई की तह तक
पहुँचना चाहते थे। सन्देहपूर्ण स्वर में बोले—दीननाथ, तुम कभी मुझसे झूठ
नहीं बोलते थे लेकिन तो भी मुझे इन बातों पर यक़ीन नहीं आता और जब तक अपनी
आंखों से देख न लूंगा, यकीन न आयेगा।
दीनानाथ कुछ निराश होकर बिदा हुआ। उसे आशा  थी कि लाला साहब
तरक्की और कारगुजारी की बात सुनते ही फूले न समायेंगे और मेरी मेहनत की
दाद देंगे। उस बेचारे को न मालूम था कि कुछ दिलों में सन्देह की जड़ इतनी
मज़बूत होती है कि सबूत और दलील के हमले उस पर कुछ असर नहीं कर सकते। यहां
तक कि वह अपनी आंख से देखने को भी धोखा या तिलिस्म समझता है।
दीनानाथ के चले जाने के बाद लाला हरनामदास कुछ देर तक गहरे
विचार में डूबे रहे और फिर यकायक कहार से बग्घी मंगवायी, लाठी के सहारे
बग्घी में आ बैठे और उसे अपने चक्कीघर चलने का हुक्म दिया।
दोपहर का वक्त था। कारखानों के मजदूर खाना खाने के लिए गोल के
गोल भागे चले आते थे मगर  हरिदास के कारखाने में काम जारी था। बग्घी हाते
में दाखिल हुई, दोनों तरफ फूलों की कतारें नजर आयीं, माली क्यारियों में
पानी दे रहा था। ठेले और गाड़ियों के मारे बग्घी को निकलने की जगह न मिलती
थी। जिधर निगाह जाती थी, सफाईं और हरियाली नजर आती थी।
हरिदास अपने मुहर्रिर को कुछ खतों का मसौदा लिखा रहा था कि
बूढ़े लाला जी लाठी टेकते हुए कारखाने  में दाखिल हुए। हरिदास फौरन उइ
खड़ा हुआ और उन्हें हाथों से सहारा देते हुए बोला—‘आपने कहला क्यों न भेजा
कि मैं आना चाहता हूँ, पालकी मंगवा देता। आपको बहुत तकलीफ़ हुई।’ यह कहकर
उसने एक आराम-कुर्सी बैठने   के लिए खिसका दी। कारखाने के कर्मचारी दौड़े
और उनके चारों तरफ बहुत अदब के साथ खड़े हो गये। हरनामदास कुर्सी पर बैठ
गये और बोरों के छत चूमनेवाले ढ़ेर पर नजर दौड़ाकर बोले—मालूम होता है
दीनानाथ सच कहता था। मुझे यहां कई नयी सूरतें नज़र आती हैं। भला कितना काम
रोज होता है? भला कितना काम रोज होता है?
हरिदास—आजकल काम ज्यादा आ गया था इसलिए कोई पांच सौ मन रोजाना
तैयार हो जाता था लेकिन औसत ढाई सौ मन का रहेगा। मुझे नयी मशीन की कीमत
अदा करनी थी इसलिए अक्सर रात को भी काम होता है।
हरनामदास—कुछ क़र्ज लेना पड़ा?
हरिदास—एक कौड़ी नहीं। सिर्फ मशीन की आधी कीमत बाकी है।
हरनामदास के चेहरे पर इत्मीनाना का रंग नजर आया। संदेह ने वह
विश्वास को जगह दी। प्यार-भरी आंखों से लड़के  की तरफ देखा और करूण स्वर
में बोले—बेटा, मैंने तुम्हार ऊपर बड़ा जुल्म किया, मुझे माफ करों। मुझे
आदमियों की पहचान पर बड़ा घमण्ड था, लेकिन मुझे बहुत धोखा हुआ। मुझे अब से
बहुत पहले इस काम से हाथ खींच लेना चाहिए था। मैंने तुम्हें बहुत नुकसान
पहुँचाया। यह बीमारी बड़ी मुबारक है जिसने तुम्हारी परख का मौका दिया और
तुम्हें लियाकत दिखाने का। काश, यह हमला पांच साल पहले ही हुआ होता। ईश्वर
तुम्हें खुश रखे और हमेशा उन्नति दे, यही तुम्हारे बूढ़े बाप का आशीर्वाद
है।
—‘प्रेम बत्तीसी’ से